अब तो हर दिन खोया-खोया सा लगता है
मुझे तो वो रब भी सोया-सोया सा लगता है..
खुब मजे लिए थे हमने प्रकृति के पेड़-पौधे उखाड़ कर
अब देखलो परिणाम उसका
आज-कल हर इंसान रोया-रोया सा लगता है..
खत्तावार तो सब है यहां
मगर न जाने क्यों ये आसमां मे उडने वाला परिंदा
जमीं से गुम होया-होया सा लगता है..
हमारी और इनकी चंचलता में फर्क बस इतना सा है
ये चुग लेते हैं दाना वैसा ही
जो इंसान का बोया-बोया सा लगता है..
मजबूर कर दिया है कमबख़्त इंसान ने
इन हवाओं को जहरीला होने पर
इसलिए तो ये वातावरण अशुद्ध होया-होया सा लगता है..
कहते थे बडे शौक से
निर्मल-पावन पाक-पवित्र जिस जल को
अब देखलो अपनी आँखों से
कैसे वो गंगा जल मैला होया-होया सा लगता है..
दुष्प्रभाव मिले हैं ए-दीप
ये सब कुदरत से खिलवाड़ के
लेकिन आज भी विज्ञान
दो-चार बंदों के ठीक होने पर
खुश होया-होया सा लगता है..
अब तो हर दिन खोया-खोया सा लगता है
मुझे तो वो रब भी सोया-सोया सा लगता है..
~कुलदीप सभ्रवाल
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