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मांग का सिंदूर



क्यो लिखु तेरे बारे मे कहीं मसहूर न हो जाऊं....

आज तेरी नजरो में,

बेवफा हूँ में मुझे बेवफा ही रहने दो,

अभी तो कसूरवार हूँ तेरा कहीं तेरे बारे में लिखने के बाद,

मैं बेकसूर ना हो जाऊं...


दूर तो तुमने अपने आपको हमसे कर लिया है,

आज बेरोजगार समझ के,

अब डर है तुम्हें इस बात का कहीं तुमसे अलग होकर

मैं कोहिनूर ना हो जाऊं...


मैंने तुमसे अलग हो करके खुद को बडी मुस्किल से समेटा हैं,

आज यूँ मिले हो अचानक ,

पर ऐसे तो मत देखो ए-जालिम

कहीं तुम्हारी कातिल नजरों से

दोबारा चकनाचूर न हो जाऊं...


जो फासले बन गए है ,

इन फासलों को कम करने की कोशिश न कर,

ज्यादा ही रहने दो कहीं ये फासले कम हो गए तो

मैं तेरी इस सुन्नी मांग का

सिंदूर न हो जाऊं...

~कुलदीप सभ्रवाल




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