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औरत हुँ पत्थर तो नहीं

कभी घुंघट मे रखा , 

कभी जलती आग मे न चाहते हुए भी जलने को बैठा दिया, 

कम से कम बताया तो होता कुसुर क्या था मेरा,,,


न किसी ने साथ दिया, 

जब दिल किया रख लिया और जब दिल किया छोड दिया, 

ऐसे ही तो उठाया है सबने फायदा मेरा,,,

बडी - बडी बातें बनाई, खुद भी लूटी औरों से भी लूटवाई, 

इसी प्रकार सदियों से चलता आ रहा है शोषण मेरा,,


क्या किया इस समाज ने मेरा, 

कभी रेप किया कभी दूसरों के हाथों बेच दिया, 

बस इसी तरह तो समाज ने किया है शोषण मेरा,

अब मन करता है रूकसत हो जाऊं इस मतलबी जहान से, 

न अतीत था, न वर्तमान है, 

और हालाते समाज देख कर शायद न होगा भविष्य मेरा,

औरत हुँ पत्थर तो नहीं,,,,,।


~कुलदीप सभ्रवाल


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