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तेरे रास्तों का मुसाफ़िर

तेरे रास्तों का मुसाफ़िर

तेरे रास्तों का मुसाफ़िर

तेरे रास्तों का मुसाफ़िर


तेरे रास्तों का मुसाफ़िर कभी होता था मैं
फिर क्यूँ मंजिलों में सूल सा तुम्हें चुबने लगा हूँ,,

था कभी तेरी आँखों का मोती मैं
जो तुम्हें चेहरे कि धुल सा अब लगने लगा हूँ,,

तेरे हर सवालों का जवाब होता था कभी मैं
जो अब फट्टी किताब सा तुम्हें दिखने लगा हूँ,,

तेरे आसमां का परिंदा हो गया था मैं
फिर क्यूँ अब कटे पतंग सा तुम्हें लगने लगा हूँ,,

कभी अंधेरें का दीप हुआ करता था मैं
जो अब डरावना सा आदमी तुम्हें दिखने लगा हूँ,,

तेरे रास्तों का मुसाफ़िर कभी होता था मैं
फिर क्यूँ मंजिलों में सूल सा  तुम्हें चुबने लगा हूँ,,

तेरे हर सवालों का जवाब होता था कभी मैं
जो अब फट्टी किताब सा तुम्हें दिखने लगा हूँ.!!

~कुलदीप सभ्रवाल


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