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जख़्म मजदूर के



जख़्म बहुत है उसके शरीर पर 

मगर भर सके इन जख्मों को ऐसा कोई दवाखाना यहां नहीं मिलता,,


दर-दर भटकता रहता है वो

पर दो पल ठहर के कर सके कहीं आराम ऐसा कोई

आशियाना यहां नहीं मिलता,


वो जब-जब जहां गया बस चोर मकार जैसे नामों से पुकारा गया

कहीं पर भी उसे उसके असली नाम से बुलाने वाला नहीं मिलता,,


दिन-रात करता है मेहनत दो वक्त कि रोटी की खातिर, 

मगर इतना सब करने के बाद भी उसे मेहनताना यहां नहीं मिलता,


सपने बडे-बडे पाले थे उसने

मगर खुद के घर को झोपड़ी जैसा है रखता,

और दूसरो के करवा देता है वो महल खडे़,

ए-दीप वो "मजदूर" ही तो है जिसे उम्र भर कोई खज़ाना

नहीं मिलता,,


सिर्फ दुख तकलीफों मे ही बीत जाती है,

जिंदगी उसकी

जो बन सके हमदर्द उसका ऐसा कोई

परवाना नहीं मिलता,,

~कुलदीप सभ्रवाल









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